'गुरु' ये शब्द स्वयं में परिपुर्ण शब्द है। इस शब्द ,इस उपाधि, इस स्थान की व्याख्या करना सरल कदापि नहीं हो सकता । यद्यपी गुरु का कार्य अपने शिष्य को उस कला उस शिक्षा से अवगत कराना ही होता है जो उन्होने अपने गुरुओं से पायी होती हैं , तथापि एक गुरु इतने पर ही नहीं रुकता । वो अपने शिष्यों को अपने जीवन भर का अनुभव भी दे जाता है।
गुरु कभी अपने शिष्यों में भेद नहीं करता उनके लिये शिष्यों की कोई जाति कोई क्षेत्र कोई धर्म नहीं होता ।
इन पंक्तियों को लिखते हुए अचानक गुरु द्रोण की याद आ जाती है । एक बार को लगता है की फिर क्यों गुरु द्रोण ने अपने शिष्यों अर्जुन और एकलव्य में भेद किया होगा । द्रोण जैसे न्यायप्रिय योग्य गुरु ने उस एकलव्य के साथ कैसे अन्याय किया जिसने उनकी पाषाण प्रतिमा को गुरु मानकर अपनी धनूर्वीद्या का प्रशिक्षण प्राप्त किया ।
ऐसी अनितीपुर्ण कार्य को करते समय द्रोण की मनोस्थिति क्या रही होगी । इस विषय पर कई व्याख्यान पढने को मिल जायेंगे। यदि आप गुरु की उसी परिभाषा को सत्य स्वीकार करेंगे जो मैने उपर वर्णित किया है तो ये उत्तर आपको संतुष्ट कर सकता है ।
एकलव्य की धनुर्विद्या से अर्जुन बहुत अधिक आहत हुए थे, अर्जुन को गुरु द्रोण ने कहा था की एक दिन इस धरा का सर्वश्रेष्ठ धनूर्धर वही होंगे । भीष्म पितामह को भी यही बात कही थी गुरु द्रोण ने । भविष्य में होने वाली परिस्थितियों का इन दोनों महापुरुषों को भान था । इसलिए भी जरूरी था की अर्जुन एक सर्वश्रेष्ठ योद्धा बने ना की एक हताश और लाचार पुरुष । दुसरी तरफ यद्यपी एकलव्य ने अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध कर दी थी , किन्तु उस काल के वर्ण संगत कूरितियों से गुरु द्रोण भली भाँति परिचित थे , उन्हें पता था की एकलव्य लाख प्रतिभाशाली क्यों ना हो मगर एक भीलपुत्र होने के कारण उस स्थान उस यश का भागी कदापि नहीं हो सकता जिसका वो अधिकारी है । इन्ही सब विचारों की गहन चिंता करने के बाद गुरु द्रोण ने वो पाप अपने माथे पर लेने का विचार कर लिया जो जन्मों जन्मों तक एक कलंक की भाँति उनके नाम के साथ युक्त हो जाने वाली थी । गुरु द्रोण ने जब एकलव्य से ये वचन लिया की अब से धनुष चलाते हुए वो अपने दाहिने अंगुष्ठ का प्रयोग नहीं करेगा तब गुरु द्रोण भली-भांति जानते थे की इसके बाद कलि काल तक वो एक पक्षपाती गुरु के रूप में याद किये जायेंगे , परन्तु इस एक कार्य के पुर्ण होते ही एकलव्य एक गुरुभक्त और सर्वश्रेष्ठ योद्धा ही नहीं अपितु एक युगपुरुष की भाँति अमर हो जायेंगे । उन्हे वो मान स्वत: प्राप्त हो जायगी जिनके वो सच्चे अधिकारी हैं । हां इससे उनके अर्जुन को दिये वचन का निर्वाह करने में मदद भी मिली परंतु उन्होने ये व्यावहार एकलव्य के ही साथ क्यों किया । जबकि सुर्य पुत्र कर्ण भी उनके इस वचन निर्वाह के मार्ग में एक चट्टान सदृश खड़े थे । सोच कर देखियेगा।
गुरु पूर्णिमा पर समस्त गुरुओं को समर्पित एक छोटी सी भेंट ।
सागर सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें