" उधर देखते रहिएगा ... मेरे मायके से कोई आएगा ...!"
इन्होंने आकाश में उत्तर दिशा की तरफ उंगली उठा दी और मेरी आँखें ठीक ध्रुव तारे पर जा टिकी । एक बार फिर दोनों मिल कर ध्रुवतारा देख रहे थे ।
मायके से ? आकाश मार्ग से ? कौन आ सकता था वो भी रात को पौने बारह बजे ? मुझे बुरी तरह से उलझा दिया था अनिता ने ..!
उत्तर जानने को मैं उत्सुक हो उठा ! इनकी निगाहें ध्रुव तारे की दिशा में स्थिर थीं और मेरी इनके चेहरे पर .... !
दो कमरे का ऊपर का किराए का मकान था जिसके आगे निकली थी छोटी सी छत जो उस घर की जान थी । बाहर और खुले में बैठने लेटने का सुख वहीं मिलता ।
बगल के हाते से बहुत बड़ा नीम का पेड़ निकल कर छत का थोड़ा सा आकाश घेरे था जिसकी टहनियों के पीछे चाँद आँख मिचौली करता अपना सफ़र पूरा करता ।
उस समय बिरले ही किसी घर मे बिजली आयी थी । खपरैल के मकान थे और गलियों के नुक्कडों पर लगे थे लैंप पोस्ट ।
छोटी सीढ़ी लिए एक साइकल पर आदमी रोज़ शाम को आता , साथ मे तेल का पीपा होता और एक नपना गिलास भी । पोस्ट नपा तुला उजाला गलियों को देता और सवेरे तक दीपक अपने आप बुझ जाता ! अब सूरज को दीपक क्या दिखाना ।
तब अमावस् की रातों वाले आकाश को शहर के उजाले प्रदूषित नही करते थे और रात को तारे दिखते एकदम स्वच्छ और निर्दोष ! एक एक तारा पूरी चमक के साथ टिमटिमाता और आकाशगंगा का विस्तार देख कर दिल एकदम उस पर तैरने डूबने को करता ।
कभी तलवार तो कभी झाड़ू के आकार के धूमकेतु भी अविस्मरणीय छटा बिखेर कर चले गए न जाने कहाँ ।
उल्का पिंड टूटकर बिखरने के पहले जुड़े हाथों और बंद आँखों मे न जाने कितनी इच्छाओं को जोड़ गए !
ऐसी रातें देख कर दिल ख़ुश हो जाता । शायद ऐसा आकाश शहर से उठते धुएँ से उकताकर ठेठ गाँव देहात मे जा कर टंगा हो !
ये, शाम होते ही छत पर झाड़ू मारती और बाल्टी मग्घे से पानी का छिड़काव कर देती । पानी सूखते ही बिछ जाती मोटी दरी और उस पर सफेद चादरों वाला बिस्तर । मुंडेर पर आ बैठती शेर के मुँह वाली एक सुराही !
बारा एक बजे तक पानी हो जाता था चिल्ड और हवा में भी इतनी ठंडक उतर आती की चादर लेनी ही पड़ती ! कई बार सवेरे चार बजे कमरे के अंदर आ कर सोते ।
वो भी तो जून के ही महीने थे, रातें थीं, पता नहीं कहीं खो गयीं ? रात नौ बजे तक सफेद चादरें एकदम ठंडी हो जाती थी वैसी गर्मियाँ थी फिर लौट कर नहीं आयीं।
देखा, ये तकिए पर पेट के बल लेटी टकटकी लगाए देख रहीं थी जिस दिशा में मैं देख रहा था ।
अचानक ये उछल पड़ी .." आ गया देखिये ..!" मैंने चौंक कर देखा..
उत्तर से दक्षिण की तरफ तेज़ी से भागता जाता एक छोटा सा तारा !
अद्भुत ! भागते तारे को दोनों मुँह और आँख दोनों पूरा खोल के देख रहे थे । वो किसी दूसरे तारे से टकरा भी नहीं रहा था । रुके तारे तो मैंने देखे थे पर .. भागता तारा ...!
वो सीधी रेखा में चलता गया और दक्षिण के आकाश के क्षितिज में मद्दम हो कर गायब हो गया ।
" दो ढाई घंटे बाद फिर से आएगा " ... इन्होंने बताया । मतलब इसने ख़ूब देखा था उसे रात रात भर ।
" ये मेरे मायके से आता है रोज़ रात को । माँ , बाबूजी भैया , चिरैया , गाय , भैस , कोयल , मोर और पूरे गाँव की खबर मुझे दे जाता है , मुझे बहुत अच्छा लगता है । एक बात बताऊँ .. आप सो जाते हो पर मैं इसे देखे बिना नही सोती ! "
मैंने इनको गौर से देखा .. अंधेरे में एक बार फिर तारों की रौशनी चुरा कर चेहरे के तीनो हीरे दमक रहे थे ।
मैं इनके चेहरे की तरफ देख रहा था और मन ही मन किसी को ... शुक्रिया भी बोल रहा था ।
हज़ारो किलोमीटर दूर था वो ।
यू एस एस आर ! रशिया जिसके बारे में इन्हें कुछ भी पता नही था !
मैं रूस को धन्यवाद दे रहा था कि उसने अपने पहले पोलर सेटेलाइट स्पुतनिक की ट्रैजेक्टरी ठीक इनके गाँव के उपर से निकाल कर मेरी दुछत्ती पर रख दी थी ।
विज्ञान का ये अद्भुत व्योमयान मेरी पत्नी के मायके वाले गाँव को भी रोज़ रात सवारी कराता होगा वो भी मॉस्को को खबर हुए बिना !
गज़ब हो गया , एक बिटिया शादी के बाद अपने मायके से किस किस रूप में जुड़ती है इसका उदाहरण इससे अच्छा हो नही सकता था , पर ये सच था । किसे विश्वासः होगा , सिवाय इनके और मेरे ।
मैंने पूछा , " आया तो मायके से पर अब गया कहाँ ..?"
आकाश गंगा में कहीं देखते हुए बोली , " स्वर्ग गया है वहां नाना नानी है न उनको गाँव , खेत , मैया , बाबूजी की ख़बर सुनाने , फिर वापस गाँव जाएगा फिर मेरे पास ..."
मैंने क्षितिज पर ओझल होते स्पुतनिक को देखा और मुँह से निकल गया ... दसविदानिया ! विदा , दिन में दस बार चक्कर लगाने वाले ससुराल के रूसी दोस्त ! ये तो रूस की इनके लिए प्यारी सी सौगात थी .. फ्रॉम रशिया विद लव !!
गौर से अंधेरे में देखा .. इनकी आँखों के आकाश मे भी यादों की गंगा की कुछ बूंदे तैर गयी थीं ...पर इनका चेहरा मुझे तैरता उतराता क्यूँ दिख रहा था ?
इन्होंने आकाश में उत्तर दिशा की तरफ उंगली उठा दी और मेरी आँखें ठीक ध्रुव तारे पर जा टिकी । एक बार फिर दोनों मिल कर ध्रुवतारा देख रहे थे ।
मायके से ? आकाश मार्ग से ? कौन आ सकता था वो भी रात को पौने बारह बजे ? मुझे बुरी तरह से उलझा दिया था अनिता ने ..!
उत्तर जानने को मैं उत्सुक हो उठा ! इनकी निगाहें ध्रुव तारे की दिशा में स्थिर थीं और मेरी इनके चेहरे पर .... !
दो कमरे का ऊपर का किराए का मकान था जिसके आगे निकली थी छोटी सी छत जो उस घर की जान थी । बाहर और खुले में बैठने लेटने का सुख वहीं मिलता ।
बगल के हाते से बहुत बड़ा नीम का पेड़ निकल कर छत का थोड़ा सा आकाश घेरे था जिसकी टहनियों के पीछे चाँद आँख मिचौली करता अपना सफ़र पूरा करता ।
उस समय बिरले ही किसी घर मे बिजली आयी थी । खपरैल के मकान थे और गलियों के नुक्कडों पर लगे थे लैंप पोस्ट ।
छोटी सीढ़ी लिए एक साइकल पर आदमी रोज़ शाम को आता , साथ मे तेल का पीपा होता और एक नपना गिलास भी । पोस्ट नपा तुला उजाला गलियों को देता और सवेरे तक दीपक अपने आप बुझ जाता ! अब सूरज को दीपक क्या दिखाना ।
तब अमावस् की रातों वाले आकाश को शहर के उजाले प्रदूषित नही करते थे और रात को तारे दिखते एकदम स्वच्छ और निर्दोष ! एक एक तारा पूरी चमक के साथ टिमटिमाता और आकाशगंगा का विस्तार देख कर दिल एकदम उस पर तैरने डूबने को करता ।
कभी तलवार तो कभी झाड़ू के आकार के धूमकेतु भी अविस्मरणीय छटा बिखेर कर चले गए न जाने कहाँ ।
उल्का पिंड टूटकर बिखरने के पहले जुड़े हाथों और बंद आँखों मे न जाने कितनी इच्छाओं को जोड़ गए !
ऐसी रातें देख कर दिल ख़ुश हो जाता । शायद ऐसा आकाश शहर से उठते धुएँ से उकताकर ठेठ गाँव देहात मे जा कर टंगा हो !
ये, शाम होते ही छत पर झाड़ू मारती और बाल्टी मग्घे से पानी का छिड़काव कर देती । पानी सूखते ही बिछ जाती मोटी दरी और उस पर सफेद चादरों वाला बिस्तर । मुंडेर पर आ बैठती शेर के मुँह वाली एक सुराही !
बारा एक बजे तक पानी हो जाता था चिल्ड और हवा में भी इतनी ठंडक उतर आती की चादर लेनी ही पड़ती ! कई बार सवेरे चार बजे कमरे के अंदर आ कर सोते ।
वो भी तो जून के ही महीने थे, रातें थीं, पता नहीं कहीं खो गयीं ? रात नौ बजे तक सफेद चादरें एकदम ठंडी हो जाती थी वैसी गर्मियाँ थी फिर लौट कर नहीं आयीं।
देखा, ये तकिए पर पेट के बल लेटी टकटकी लगाए देख रहीं थी जिस दिशा में मैं देख रहा था ।
अचानक ये उछल पड़ी .." आ गया देखिये ..!" मैंने चौंक कर देखा..
उत्तर से दक्षिण की तरफ तेज़ी से भागता जाता एक छोटा सा तारा !
अद्भुत ! भागते तारे को दोनों मुँह और आँख दोनों पूरा खोल के देख रहे थे । वो किसी दूसरे तारे से टकरा भी नहीं रहा था । रुके तारे तो मैंने देखे थे पर .. भागता तारा ...!
वो सीधी रेखा में चलता गया और दक्षिण के आकाश के क्षितिज में मद्दम हो कर गायब हो गया ।
" दो ढाई घंटे बाद फिर से आएगा " ... इन्होंने बताया । मतलब इसने ख़ूब देखा था उसे रात रात भर ।
" ये मेरे मायके से आता है रोज़ रात को । माँ , बाबूजी भैया , चिरैया , गाय , भैस , कोयल , मोर और पूरे गाँव की खबर मुझे दे जाता है , मुझे बहुत अच्छा लगता है । एक बात बताऊँ .. आप सो जाते हो पर मैं इसे देखे बिना नही सोती ! "
मैंने इनको गौर से देखा .. अंधेरे में एक बार फिर तारों की रौशनी चुरा कर चेहरे के तीनो हीरे दमक रहे थे ।
मैं इनके चेहरे की तरफ देख रहा था और मन ही मन किसी को ... शुक्रिया भी बोल रहा था ।
हज़ारो किलोमीटर दूर था वो ।
यू एस एस आर ! रशिया जिसके बारे में इन्हें कुछ भी पता नही था !
मैं रूस को धन्यवाद दे रहा था कि उसने अपने पहले पोलर सेटेलाइट स्पुतनिक की ट्रैजेक्टरी ठीक इनके गाँव के उपर से निकाल कर मेरी दुछत्ती पर रख दी थी ।
विज्ञान का ये अद्भुत व्योमयान मेरी पत्नी के मायके वाले गाँव को भी रोज़ रात सवारी कराता होगा वो भी मॉस्को को खबर हुए बिना !
गज़ब हो गया , एक बिटिया शादी के बाद अपने मायके से किस किस रूप में जुड़ती है इसका उदाहरण इससे अच्छा हो नही सकता था , पर ये सच था । किसे विश्वासः होगा , सिवाय इनके और मेरे ।
मैंने पूछा , " आया तो मायके से पर अब गया कहाँ ..?"
आकाश गंगा में कहीं देखते हुए बोली , " स्वर्ग गया है वहां नाना नानी है न उनको गाँव , खेत , मैया , बाबूजी की ख़बर सुनाने , फिर वापस गाँव जाएगा फिर मेरे पास ..."
मैंने क्षितिज पर ओझल होते स्पुतनिक को देखा और मुँह से निकल गया ... दसविदानिया ! विदा , दिन में दस बार चक्कर लगाने वाले ससुराल के रूसी दोस्त ! ये तो रूस की इनके लिए प्यारी सी सौगात थी .. फ्रॉम रशिया विद लव !!
गौर से अंधेरे में देखा .. इनकी आँखों के आकाश मे भी यादों की गंगा की कुछ बूंदे तैर गयी थीं ...पर इनका चेहरा मुझे तैरता उतराता क्यूँ दिख रहा था ?
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